सोचने बैठी एक दिन नदी के बारे में.....
देखा है कभी बहती,लहकती,चहकती उस नदी को,
लोगों ने उसको बाँध बनाकर रोका,
उसके करुण क्रंदन को कोई देख न सका,
व्यथित व्याकुल वो नदी बस आगे को बह निकली,
उसके सफ़र के बारे में ..... मन में इक टीस सी उठी....
क्या है उसका जीवन... हमेशा दुसरो के लिए समर्पित,
तपती धरा की तृष्णा बुझाते बुझाते वो अपने वजूद को भूल जाती है,
तृप्त कर जाती है पर हर प्यासे को अपने स्नेह से,
अपनी मृदुलता से,और अपनी ठंडक से हर लेती है सारे ताप,
हरा भरा करके धरती को ,सबको भोजन-पानी देकर .....
बह निकलती है हर रूकावट को तोड़कर आगे.....
अपने मन के भावों से उस नदी की व्यथा जोड़कर कुछ विचार आपके समक्ष प्रस्तुत हैं....
क्या है उसका जीवन... हमेशा दुसरो के लिए समर्पित,
तपती धरा की तृष्णा बुझाते बुझाते वो अपने वजूद को भूल जाती है,
तृप्त कर जाती है पर हर प्यासे को अपने स्नेह से,
अपनी मृदुलता से,और अपनी ठंडक से हर लेती है सारे ताप,
हरा भरा करके धरती को ,सबको भोजन-पानी देकर .....
बह निकलती है हर रूकावट को तोड़कर आगे.....
अपने मन के भावों से उस नदी की व्यथा जोड़कर कुछ विचार आपके समक्ष प्रस्तुत हैं....
देखा है कभी बहती,लहकती,चहकती उस नदी को,
जिसने सीखा नहीं कभी विराम होना......
कुछ पहाड़ आये रोकने उसे,
उनके बीच से भी वो बह निकली,
कभी कोई खायी आई रास्ते में,
तो जा गिरी वो उस खायी में भी.........
लोगों ने उसको बाँध बनाकर रोका,
दुखी हुयी,सहमी कुछ देर पर,
बिन सोचे अपना कोई भी स्वार्थ,
बहती चली वो रास्ते में आई हुयी सारी गंदगी को साफ़ करती.........
उसके करुण क्रंदन को कोई देख न सका,
सबको तो बस अपनी पड़ी थी,
उसके अश्रुओं को कोई क्या देखता,
वो तो उसमे ही विलीन हो गए,
धार बनी वह कभी फुहार बनी,
कभी माँ के आँचल को वो तरसी.......
व्यथित व्याकुल वो नदी बस आगे को बह निकली,
औरों का जीवन सार्थक कर चली वो,
उसको तो समुन्दर में जाकर मिल जाना है,
आगे जाकर तो उसका अस्तित्व ही खो जाना है,
फिर भी अपने जीवनकाल में वो सबको अस्तित्व दे गयी,
अपना रास्ता खुद बनाते हुए हमको भी जीने की सीख दे गयी...........
सबको तो बस अपनी पड़ी थी,
ReplyDeleteउसके अश्रुओं को कोई क्या देखता,
वो तो उसमे ही विलीन हो गए
सुंदर रचना
धन्यवाद!!!!
Deleteसाभार
मीनाक्षी
ReplyDelete♥
व्यथित व्याकुल वो नदी बस आगे को बह निकली,
औरों का जीवन सार्थक कर चली वो,
उसको तो समुन्दर में जाकर मिल जाना है,
आगे जाकर तो उसका अस्तित्व ही खो जाना है,
फिर भी अपने जीवनकाल में वो सबको अस्तित्व दे गयी,
अपना रास्ता खुद बनाते हुए हमको भी जीने की सीख दे गयी...........
आह ! बहुत संवेदना जाग्रत करने वाली कविता है
आदरणीया मीनाक्षी मिश्र तिवारी जी
सादर नमन !
एक नदी और घर-परिवार को समर्पित नारी में बहुत समानताएं हैं न ! … बल्कि एक रूप ही हैं दोनों कदाचित्
सुंदर रचना के लिए हृदय से आभार !
आपकी अन्य कविताएं भी बहुत भावपूर्ण हैं …
अच्छा लगा आपके यहां आ'कर …
शुभकामनाओं-मंगलकामनाओं सहित…
- राजेन्द्र स्वर्णकार
सहमत हूँ मैं आपके विचार से... इस नदी में और घर परिवार को समर्पित नारी में बहुत समानताएं हैं...
ReplyDeleteअच्छा लगा आपका कमेन्ट पढ़कर..... मन को असीम प्रसन्नता हुयी जो आपने मेरी रचना को सराहा... इतना सम्मान दिया...
बहुत बहुत धन्यवाद !!!!
पर इस सम्मान के लिए मैं अभी बहुत सूक्ष्म हूँ .....
साभार
मीनाक्षी
अरे????
ReplyDeleteहमने ये पहले कैसे नहीं पढ़ी....??
लगता है पढ़ी है..मगर टिप्पणी नहीं है !!!
बहुत सुन्दर मीनाक्षी...
अच्छी रचना..
सस्नेह
अनु
thank you so much mini aunty...
Delete:)
<3 <3
regards