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Friday 16 March 2012

"तुम"


सोचती हूँ कभी कभी, सागर में लहरें हों जैसे ठहर गयीं,
क्यूँ मैंने ढाल दिया अपने आप को,
तुम्हारे बनाये सांचे में......


जब कहा तुमने इक बार मुझसे यूँही,
प्यार करता हूँ मैं तुमको,
मैंने भी सीख लिया प्यार करना तुम्हे.....


जब कहा तुमने इक बार मुझसे यूँही,
सुन्दर लगती हो तुम मुझको,
मैंने श्रृंगार करना सीख लिया तबसे.....


जब कहा तुमने इक बार मुझसे यूँही,
मुस्कुराती हुयी अच्छी लगती हो,
मैंने भी हँसना सीख लिया तुमसे .......


जब कहा तुमने इक बार मुझसे यूँही,
जीना चाहता हूँ साथ लेकर तुमको,
मैंने सीख लिया जीना साथ तुम्हारे....

जब कहा तुमने इक बार मुझसे यूँही,
चलो कदम से कदम मिलाकर मेरे,
मैंने भी चलना सीख लिया साथ तुम्हारे,

आज जब ढल गयी, बदल चुकी हूँ पूरी,
तुमने प्यार करना छोड़ दिया मुझे,
सुन्दर कहना भूल ही गए जैसे,
एक अरसा हुआ साथ मुस्कुराये हुए,
साथ जीना तो जैसे हम भूल ही गए,
चल पड़े हैं अकेले एक अनजान सफ़र पे, 


सोचती हूँ शिकायत करूँ या न करूँ तुमसे,
फिर यही ख्याल आता है दिल में,
ढाला तो मैंने ही है अपने आपको,
क्यूँ शिकायत करूँ मैं तुमसे,

सोचती हूँ कभी कभी, सागर में लहरें हों जैसे ठहर गयीं,
क्यूँ मैंने ढाल दिया अपने आप को,
तुम्हारे बनाये सांचे में...... 

4 comments:

  1. बहुत सुन्दर ...........
    सच में कभी कभी प्यार करते करते हम अपना अस्तित्व खो देते हैं...
    "मैं तुम हो जाती हूँ"....

    और फिर रह जाती है कसमसाहट .....

    बहुत भावपूर्ण रचना...

    सस्नेह.

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  2. बहुत बहुत आभार आपका....

    "और उस कसमसाहट के साथ हम एक दिन जीना सीख जाते हैं,वो भी हमारी जिंदगी का एक हिस्सा बन जाती है"
    बस मन में आये ख्यालों को किता बना कर कुछ कसमसाहट से रहत मिल जाती है....

    बहुत बहुत धन्यवाद....

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  3. आपकी लेखनी को नमन...इस अद्भुत रचना के लिए बधाई स्वीकार करें...!!!


    संजय भास्कर
    http://sanjaybhaskar.blogspot.in

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  4. sach aapki kavita padi aapki hi tarah khubsurat he....

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