भोपाल मध्य प्रदेश की राजधानी है।मैंने इंजीनियरिंग भोपाल से ही की,वहां 4 वर्ष रही। वहां की प्राकृतिक सौन्दर्यता भुलाए नहीं भूलती।वैसे तो फाल्गुन मास में झीलों के शहर भोपाल में जहाँ-तंहा पलाश की बहार देखने को मिलती है। कॉलेज के दिनों में मेरे कमरे के बाहर एक पलाश का वृक्ष हुआ करता था ..... मुझे उसके फूल अपनी किताबों में सहेजना बहुत अच्छा लगता था। एक बार होली पर मैं अकेली अपने कमरे की खिड़की पे बैठे किताबों के पन्ने पलट रही थी, कि अचानक एक शुष्क पलाश का फूल मुझे मिल गया। न जाने कब से सहेजा था। बस अपनी कलम से मन की बातें पन्नों पे उतर दी, और बन गयी "पलाश"........
फागुन आया है,होली लाया है,
वृक्षों पर सुन्दर पलाश मुस्काया है,
ये पलाश सुमधुर सी स्मृति लाया है,
क्यूंकि आज एक शुष्क पलाश मैंने अपनी किताब में पाया है.......
ये पलाश मुझसे बार-बार प्रश्न कर रहा है,
रंग मेरे केसरी भरने क्यूँ न कोई आया है,
क्यूँ पूर्ण चन्द्रमा की चांदनी धूमिल सी लग रही है,
क्यूँ चंचल किरणे इस चाँद की उदास सी लग रही हैं..........
शायद पलाश का मन कुछ शंका से भरमाया है,
जाने किसकी आस में पलाश ऐसे सकुचाया है,
कैसे कहूँ की पलाश का मन उसे पुकार रहा है,
इस इन्द्रधनुषी होली में मेरी किताब का पलाश बस रोया है.......
फागुन आया है,होली लाया है,
वृक्षों पर सुन्दर पलाश मुस्काया है,
ये पलाश सुमधुर सी स्मृति लाया है,
क्यूंकि आज एक शुष्क पलाश मैंने अपनी किताब में पाया है.......
ये पलाश मुझसे बार-बार प्रश्न कर रहा है,
रंग मेरे केसरी भरने क्यूँ न कोई आया है,
क्यूँ पूर्ण चन्द्रमा की चांदनी धूमिल सी लग रही है,
क्यूँ चंचल किरणे इस चाँद की उदास सी लग रही हैं..........
शायद पलाश का मन कुछ शंका से भरमाया है,
जाने किसकी आस में पलाश ऐसे सकुचाया है,
कैसे कहूँ की पलाश का मन उसे पुकार रहा है,
इस इन्द्रधनुषी होली में मेरी किताब का पलाश बस रोया है.......