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Friday 28 September 2012

" जिंदगी...."




पलट पलट कर जब भी देखा है तुझे...
हर रंग में मुझे तू दिखी जिंदगी....
कभी हंसती हुयी....
कभी सिसकती हुयी.....
सिमटी हुयी ज़ज्बातों में कहीं....
कभी ठिठुरती हुयी रिश्तों की सीली सर्द हवाओं में...
तो जलती हुयी ख्वाहिशों की तपिश में कहीं...

बिखरती हुयी हालातों में कहीं...
कभी बहारों में संवरती हुयी....
कभी ख़्वाबों की दुनिया में उडती हुयी..
कभी मचलती हुयी अदाओं में भी देखा है तुझे...
और कभी बहते हुए पानी सी लगी है तू....

मेरे साथ है तू ही इस सफ़र में,अनजान से इस शहर में....
जहाँ अपने भी अजनबी लगते हैं,और हमसाए भी झूठे दिखते हैं....
इस तलाश में... इस ख़ामोशी की आवाज़ में... जो आती तो है लबों तक पर सुनाई नहीं देती... तू ही तो है मेरी संगिनी...
ऐ जिंदगी... ऐ जिंदगी....

Thursday 27 September 2012

"वो पुराना रेशमी धागा"



जाना हुआ आज मेरा अचानक,उस पुराने से शहर में...
मोहल्ले की उस पुरानी गली में... तो याद आया की ये तो वही जगह है....
जहाँ इक पुराने से मंदिर के सिरहाने वाले पुराने से पीपल के दरख़्त की,सबसे ऊंची डाली के तने पर अपनी मन्नतों का रेशमी धागा बाँधा था कई साल पहले....
बिसरा दिया था जिसको मैंने ...
लपेटा था बडे जतन और उत्साह से कसकर,की कभी पकड़ न कमजोर हो इस विश्वास की.....
आज रंग ...

उस धागे का उड़ गया है,धुप और बरसात में... पर पकड़ आज भी उतनी ही मजबूत है मेरे उस विश्वास की.....
अहसास कराया उस पुराने रेशमी धाँगे ने आज मुझे,विश्वास अटल हो मन में जो,क्षति न कोई हो पाएगी तेरे अंतर संबल को...
मन्नतों में बांधे हुए उन रेशमी धागों को देख आँख ख़ुशी से भर आई मेरी.....
बिसरे हुए विश्वास को उस पुराने से शहर से,अपने संग इस नए शहर में लाकर ,बांधुंगी फिर से एक रेशमी धागा,अपने विश्वास का किसी दरख़्त पर .....

Wednesday 26 September 2012

"ह्रुदय-विहंग"




जब जब मौन को विजय करना चाहा है,
शब्द फूट फूट कर निकसे हैं।
दबे हुए से भाव अंतस में कुलबुलाये हैं,
अधरों पर उमड़-उमड़ कर आये हैं।


कैसी विडम्बना है ये मानव मन की,
बंधन को छिन्न करने को त्वरित होता है।
सीमायें जब निर्धारित हो जाएँ,
सीमाओं की बाड़ नष्ट करने को आतुर रहता है।

द्वंद्व पाश में व्याकुल ह्रदय,
ज्यों आखेटक के पाश में विवश खग हो।
क्षण-क्षण छटपटाता व्यथित उर यों,
ज्यों पाश में खग अपनी वेदना को प्रकट करे।

स्वतंत्र पखेरू बन उड़ना चाहे मन-बावरा,
ऊंचे उस आकाश में क्षितिज की आस में।
वश में ना वो आना चाहे किसी भी मायाजाल के,
पंख पसारे ह्रुदय-विहंग गाये अपनी तान में।

नीरव कानन में राग नया कोई ढूंढें अपनी मस्ती में,
कोलाहल से त्रस्त हो गया मानवता की बस्ती में।
मन नहीं अब लगता उसका माया-मोह-प्रपंच में,
अंतर्द्वंद्व का अंत कोई हो,अंतर्द्वंद्व का अंत कोई हो।

Wednesday 12 September 2012

"आक्रोश की अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के बीच की महीन रेखा"


[असीम त्रिवेदी- "आक्रोश की अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के बीच की महीन रेखा को समझने में नाकाम कार्टूनिस्ट...!!!!"
इनके देशभक्ति के ज़ज्बों को कई निगाहों से देखा जा रहा है.... युवा हैं,अगर खून में देश के लिए उबाल है तो अच्छा है.. परन्तु राष्ट्रीय प्रतीक का अपमान कहाँ तक उचित है...????
या तो ये हीरो बनना चाह रहे हैं या कोई मुहिम छेड़ना चाह रहे हैं  ????
कई सवालों के निशाने पर.. देशद्रोह की कार्यवाही के निशाने पर...]

कई मित्रों के साथ इस विषय पर हुयी एक  चर्चा  के बाद मन में ख़याल आये कई...
आपके सामने रखना चाह रही हूँ...
पूर्ण चर्चा का निष्कर्ष निकला कि "हमारे नैतिक मूल्य और कर्तव्य, राष्ट्र / राष्ट्रीय प्रतीक / संवैधानिक  संस्थाओं के प्रति अपने नीति निर्देशक कर्तव्य  हमारे  लिए सर्वोपरि हैं ..."
हाँ मैं इस से पूर्णतया सहमत हूँ...

परन्तु एक निष्कर्ष और जो मैंने निकला वो यह है कि.. हमारे नेता तो इतने बेशर्म हो चले हैं कि उनके कार्टून्स बाज़ार में बिकते हैं.. इन्टरनेट पे प्रदर्शित होते हैं.. अखबारों में छपते हैं.. परन्तु वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आते... कुछ ज्यादा ऊपर-नीचे हो तो उसको प्रतिबंधित करवा देते हैं...
अफजल ,कसाब  और अमर जवान  ज्योति को लातोँ से तोड़ने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ता कार्टून्स से....
कार्टूनिस्ट्स बस अपना काम करते रहते हैं... चाहे वो देशभक्ति के लिए हो या आजीविका के लिए... हम लोग देखकर ठहाके लगा लेते हैं... बस हो गया कार्टून का बनना सार्थक...
इतना ही है कार्टून का औचित्य सही मायनों में देखा जाए तो...

परन्तु असीम ने कार्टून कि दुनिया में एक नयी चुनौती को हमारे सामने लाकर एक ऐसा चित्र प्रस्तुत किया है कि हम उसके औचित्य को समझे हैं... भले ही वो देशद्रोह का अपराधी हो परन्तु उसने अपने आक्रोश को जताया तो... हाँ एक युवा और देशभक्त होने कि वजह से वह आक्रोश कि अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता के बीच भेद नहीं देख पाया... गर्मजोशी से भरा हुआ उसका खून कह रहा है "कि मैं एक देशभक्त हूँ"

न जाने कितने लोग कुछ हमारे देश के अन्दर के और कुछ बाहर के रोज़ हमारे देश में देशद्रोह कर रहे हैं... बस तरीके अलग अलग हैं... पर देशद्रोह का मुक़दमा असीम पर जितनी तत्परता से चलाया जा रहा है असली देशद्रोहियों पर नहीं चलाया गया... क्यूँ?????
क्यूंकि "असीम त्रिवेदी" अपने आप को "देशभक्त" कह रहा है... और ये बताना चाह रहा  है कि किस तरह देश में इन राष्ट्रीय प्रतीकों कि आड़ में भ्रष्टाचार पनप रहा है..
परन्तु उसका तरीका गलत है...!!!!
मैं कतई इस बात से सहमत नहीं कि असीम त्रिवेदी ने जो किया वो सही है... हमारी चर्चा का जो निष्कर्ष है उस से मैं पूर्णतया सहमत हूँ...
हाँ असीम त्रिवेदी ने जो किया है उसमे अन्तर्निहित तथ्य सही है.. पर लहजा गलत...
हमारे देश के युवा खून को उस अन्तर्निहित तथ्य को जानने का एक बेहतर अवसर प्रदान किया है असीम त्रिवेदी ने.... बस तरीका सही और देश के हित में हो... तो हमारे युवाओं को जागृत करने के लिए ये एक अच्छा उदाहरण है...

Saturday 8 September 2012

"कान्हा"

स्वर्णिम सुन्दर मोहक सूरत,
सलिल समान स्वच्छ  ह्रदय।।
कान्हा की है मन में मूरत,
सुलभ सनातन रूप लिए।।

अलख अनोखी जागी उर में,
दृग दर्शन की आस करें।।
बंसी बजैय्या रास रचैय्या,
प्रेम प्रीत सब तुम्ही मेरे।।
 




कंचन काया श्याम वर्ण प्रभु,
प्रकाश पुंज बन तमस हरें।।
आभा अंतर्मन में जागृत,
ज्यों मंदिर में ज्योति जले।।




कोमल कुमुद मुस्कान कलेवर,
अंधकार अंतस  का हर ले।।
मन मंदिर में बसो मनोहर,
श्वास श्वास अब पुकार करे।।

निर्मल निश्छल अद्भुत काया ,
त्वं त्वं  उर अब यही रमे।।
भक्ति भेंट करूँ चरणों में,
अनुग्रह अटल अनंत रहे।।

Sunday 2 September 2012

'मैं-एक पहेली"

 
हाँ...!! अकेली हूँ मैं अकेली...
वैसे तो बहुत थीं मेरी सहेली...
पर वक़्त की ऐसी हुयी अठखेली...
की मैं बस एकांत में ही खेली....
प्रकृति को निहारती घंटो बैठी अकेली ...
छत पर सुलझाती उलझी हुयी चमेली...
हंसती और बतियातीं मुझसे हर कली....
कभी पकड़ती बागों में उडती तितली.....
देखती आकाश में तारों की आँख मिचोली....
कभी कभी सूझती मुझको भी कोई ठिठोली....
बस बैठ जाती कागज़ कलम के साथ एकली...
अपनी मेज़ पे बैठी बनाती शब्दों की रंगोली...
कई बार शब्दों के प्रेम में जली चाय की भी तपेली....
एक दिन सहसा मैं खुद से ही बोली....
अकेली होकर तू बन गयी खुद भी एक पहेली.....