रूठे-रूठे अनमने से शब्दों को,
संजोने का साहस कहाँ से लाऊं।।
शुष्क जो अब हो चला है,
आँखों का तैरता पानी भी,
मन को छू जाए जो सबकी,
वो वेदना मैं कहाँ से लाऊं।।
शब्द जो रूठे हुए हैं,उनको कैसे मैं मनाऊं।
बिखरे-बिखरे से ख्यालों को,
बटोरना आसान नहीं है,
फिर भी कोशिश करता है मन,
कुछ तो आज समेटा जाए।।
शब्द जो रूठे हुए हैं,उनको कैसे मैं मनाऊं।
तिनका-तिनका जोड़कर,
जो नीड़ बनाया था कहीं,
आँधियों के कोप से तितर-बितर हो गया,
उसको फिर कैसे बनाऊं।।
शब्द जो रूठे हुए हैं,उनको कैसे मैं मनाऊं।
रूठे-रूठे अनमने से शब्दों को,
संजोने का साहस कहाँ से लाऊं।।
संजोने का साहस कहाँ से लाऊं।।
शुष्क जो अब हो चला है,
आँखों का तैरता पानी भी,
मन को छू जाए जो सबकी,
वो वेदना मैं कहाँ से लाऊं।।
शब्द जो रूठे हुए हैं,उनको कैसे मैं मनाऊं।
बिखरे-बिखरे से ख्यालों को,
बटोरना आसान नहीं है,
फिर भी कोशिश करता है मन,
कुछ तो आज समेटा जाए।।
शब्द जो रूठे हुए हैं,उनको कैसे मैं मनाऊं।
तिनका-तिनका जोड़कर,
जो नीड़ बनाया था कहीं,
आँधियों के कोप से तितर-बितर हो गया,
उसको फिर कैसे बनाऊं।।
शब्द जो रूठे हुए हैं,उनको कैसे मैं मनाऊं।
रूठे-रूठे अनमने से शब्दों को,
संजोने का साहस कहाँ से लाऊं।।
बहुत गजब की प्रस्तुती ........
ReplyDeleteबधाई स्वीकारें !!
आपके ब्लॉग पर आकर काफी अच्छा लगा।मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत हैं।अगर आपको अच्छा लगे तो मेरे ब्लॉग से भी जुड़ें।धन्यवाद !!
http://rohitasghorela.blogspot.in/2012/11/blog-post_6.html
नीड़ का निर्माण दुष्कर ,मत हो तू हतप्राण
ReplyDeleteबाधा विविध ,तू एकला चल ,है झेलना तुझे कटु बाण
मन को छू जाए जो सबकी
ReplyDeleteवो वेदना मैं कहाँ से लाऊं
शब्द जो रूठें हैं उनको कैसे मैं मनाऊं-----------बहुत ही सुंदर मिनाक्षी जी ।
शब्द जो रूठे हुए हैं,उनको कैसे मैं मनाऊं।...shbad maan jaayenge ..bahut sahi byaan hai ...
ReplyDeleteशुष्क जो अब हो चला है,
ReplyDeleteआँखों का तैरता पानी भी,
मन को छू जाए जो सबकी,
वो वेदना मैं कहाँ से लाऊं।।
शब्द जो रूठे हुए हैं,उनको कैसे मैं मनाऊं।
अनकही सी व्यथा .....खूबसूरती से उकेरी है ......!!
सुंदर रचना ....मीनक्षी जी .....!!
lajawab-**
ReplyDeleteइतनी सुंदर कविताएं कई बार रूठे हुए शब्दों को मना लाती हैं।।।
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति।।
वाह बहुत खूब ...शब्द रूठ कर जाएँगे कहाँ :)
ReplyDelete