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Thursday, 14 February 2013

"वह-प्रेम-पांखुरी"


निः-स्वार्थ भाव लिए एक कली अपने बागीचे में,
बैठी थी कई स्वप्न संजोये अपने मन में।।
स्वच्छंद पक्षियों के कलरव को समाये अपने ह्रदय में,
उड़ान भर रही थी वह कल्पना के आकाश में।।
निर्मलता को पा रही थी वह चन्द्रमा की चांदनी में,
तेज का पान किया उसने सूर्य की रौशनी में।।
जब वह कली खिली अपने अधरों पे मुस्कान लिए,
सुगंध ही सुगंध बिखर गयी उस भोर की लालिमा में।।
जिस भोर की थी प्रतीक्षा उसे अपने जीवन में,
यह वही सुन्दर भोर थी जो पली थी उसके निर्मल उर में।।

मंडराता-इतराता भंवरा जब आया उस बाग़ में,
कली शरमाई-सकुचाई-घबरायी अपने आप में।।
उसने पूछा भँवरे से बात ही बात में,
कौन हो तुम कहाँ से आये हो मंडराते हुए इस बाग़ में।।

भँवरे ने कहा-मित्रता करोगी मुझसे ???????
मैं नया नहीं हूँ इस बाग़ में,
स्वागत है तुम्हारा सच्चे ह्रदय से मेरे मन के तड़ाग में।।

समय बीता कुछ और भंवरा चला गया अपनी धुन में,
परन्तु जब प्रेम की पहली किरण गिरी किसी मुस्कान पे,
तो झरी पत्तियों में एक प्रेम पांखुरी मिली उस कली की,
क्या यही था उसकी निः-स्वार्थता का परिणाम ???????????????

12 comments:

  1. बहुत अच्छी अभिव्यक्ति .....
    कहीं टंकण त्रुटि है ...ठीक कर लेना ...
    लिखती रहो ....तुम्हारी सोच भी अच्छी है ....!!
    शुभकामनायें ...

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  2. सुन्दर भावपूर्ण रचना !!

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  3. बहुत सुन्दर!!!!

    कोमल भाव.

    अनु

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  4. खुबसूरत भाव...

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  5. समय बीता कुछ और भंवरा चला गया अपनी धुन में,
    परन्तु जब प्रेम की पहली किरण गिरी किसी मुस्कान पे,
    तो झरी पत्तियों में एक प्रेम पांखुरी मिली उस कली की,
    क्या यही था उसकी निः-स्वार्थता का परिणाम
    .....
    .....
    परिणाम हमेशा यही रहता है हजार बातों के बावजूद

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  6. आपकी पोस्ट की चर्चा 17- 02- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है कृपया पधारें ।

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  7. कली और भंवरे के चिर परिचित प्रेम को सुंदर बिंब में उकेरा गया है, बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  10. कली भौंरा संवाद! जय हो!

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