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Thursday, 28 February 2013

क्यूँ मैं ही हमेशा मनाऊं तुम्हें ?????

जाओ !!

आज नहीं करनी बात तुमसे,
रोज़ तो करती हूँ,

आज नाराज़ हूँ तुमसे मैं,
ना जाने क्यूँ,

देखो तो दुपहरी चढ़ आई है,
पर मन नहीं तुमसे बात करने का,

नहीं जलाया तुम्हारे मंदिर मे दिया भी आज,
जिसके बिना दिन अधूरा सा लगता है मुझे,

और तुम निष्ठुर,
आये मुझसे बात करने ????
भगवान हो न तुम !!
क्या तुम्हें ही नाराज़ होने का हक है????

क्यूँ मैं ही हमेशा मनाऊं तुम्हें ?????



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लो !!
मना ही लिया आखिर तुमने ,
बुला लिया घर अपने मुझको ,
भूल गयी सारी नाराज़गी ,
जैसे ही सुगंधित वातावरण ने घेरा मुझको,
मिश्री घुल गयी कानों में,
सुनकर वो आरती का शंखनाद,
तुमसे भी कोई नाराज़ हो सकता है भला !!


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7 comments:

  1. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवारीय ब्लॉग बुलेटिन पर |

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  2. जी सच है
    ये तो वाकई बड़ा सवाल है..
    अच्छी रचना

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  3. बहुत सुंदर प्रस्तुति मीनाक्षी जी |

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  4. क्या तेवर हैं। क्या बात है!

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  5. बहुत सुन्दर और भावपूर्ण.
    नीरज'नीर'
    मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है.
    KAVYA SUDHA (काव्य सुधा)

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