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Thursday 10 October 2013

"बिखर जाऊं"

माला बनने से ऊब चुकी हूँ,
मन है बिखर जाऊं धरा पर मोतियों की तरह ....

डालों की अब कोई चाह नहीं है,
बिछ जाना चाहती हूँ गिरे हुए फूलों की तरह ....

चमक का कोई मोल नहीं मेरी,
फ़ैल जाना चाहती हूँ आसमान में चमकते तारों की तरह .....

बातों से अब मन उचट गया है,
घुल जाना चाहती हूँ हवा में संगीत लहरियों की तरह .......

रुक तो ज़रा ....!!
सिन्दूरी कर दे मुझे ऐ ढलते सूरज,
आसमान में रंग बिखेर दूं।

सुन ले ज़रा ...!!
दिन-प्रतिदिन बढ़ते हुए चाँद ,
तेरी चांदनी सी बन जाऊं तो।

अरे ठहर ज़रा ...!!
अनवरत लहरों वाले सागर,
अपनी लहर बना ले तो मुझे।

सुन लो तुम सब मेरी अब,
नहीं तो बता दो मुझे ये,
खो जाऊं जहाँ पर जाकर मैं,
क्या ऐसा कोई संसार भी है ????

5 comments:


  1. बहुत खूब लिखा आपने लिखती रहा करे ...


    आपकी इस उम्दा रचना को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -२२ निविया के मन से में शामिल किया गया है कृपया अवलोकनार्थ पधारे

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  2. बहुत सुन्दर लिखा है मीनाक्षी......
    ऐसे सृजन करती रहो.....
    सस्नेह
    अनु

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  3. किसी भी परिधि में बंध के रहना , प्रकृति के मूल मंत्र से परे है . मनोभावों को सुन्दर शब्द दिए आपने . बहुत सुन्दर .

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  4. वाह, खूबसूरत,लाजवाब रचना.

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  5. कई बार बिखर कर भी हम सिमट जाते हैं...और फिर फर्क करना मुश्किल हो जाता है कि ये बिखराव है या जुड़ाव..सुंदर रचना।।।

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