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Wednesday, 15 August 2012

"अनकही"

कभी थी हिरनी अपने वन की,
फुदकती ही रहती थी।
आज थमी-सी उसकी चाल है....

कभी चहकती चिड़िया जैसी,
कलरव गुंजन करती थी।
आज रुंधी-रुंधी आवाज़ है....

कभी वो जल की मछली जैसी,
मचलती ही रहती थी।
आज लगता टूटा उसका बाँध है....


 जंजीरों से जकड़ी-जकड़ी,
लगती है वो बिखरी-बिखरी।
मुख पे झूठी-सी मुस्कान है....

 सबके लिए संपूर्ण बनी,
अपने लिए रह गयी अधूरी।
आज यही उसकी पहचान है...

 सीमाओं की बाड़ बंधी,
मर्यादाओं की आड़ लगी।
आज बंधन ही उसका मान है.....


कोशिश फिर भी खुश रहने की,
रूठ कर फिर खुद मनने की।
आज उसकी यही बिसात है....

 खुली नहीं फिर भी मुट्ठी उसकी,
बात छुपी है जिसमें गहरी।
आज सहनशक्ति उसकी आन है...

 फिर भी है सब से अनजानी ,
क्यूँ है अनकही-सी उसकी कहानी ??
आज सोचकर भर आई उसकी आँख है.....


14 comments:

  1. नारी जीवन की सच्चाई को रेखांकित करती पंक्तियाँ . बदलाव तो आया है लेकिन अभी बहुत आगे जाना है . सुन्दर .

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    1. haan sahi kaha aapne... abhi bahut aage jaana hai...

      dhanyavaad

      saadar

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  2. बहुत सुन्दर और दिल को छूती हुई रचना......

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  3. kabhi hirani thi apne van ki,ye kavita bhartiy samaj ke aadhi duniya ki hai.bahut sunder,hridaysparshi.SAATHI blog par apka swagat hai,join us.

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  4. सुंदर..भावप्रधान!!!!

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  5. बहुत सुंदर रचना
    मन को छू गई..
    शुभकामनाएं..

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