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Sunday, 2 September 2012

'मैं-एक पहेली"

 
हाँ...!! अकेली हूँ मैं अकेली...
वैसे तो बहुत थीं मेरी सहेली...
पर वक़्त की ऐसी हुयी अठखेली...
की मैं बस एकांत में ही खेली....
प्रकृति को निहारती घंटो बैठी अकेली ...
छत पर सुलझाती उलझी हुयी चमेली...
हंसती और बतियातीं मुझसे हर कली....
कभी पकड़ती बागों में उडती तितली.....
देखती आकाश में तारों की आँख मिचोली....
कभी कभी सूझती मुझको भी कोई ठिठोली....
बस बैठ जाती कागज़ कलम के साथ एकली...
अपनी मेज़ पे बैठी बनाती शब्दों की रंगोली...
कई बार शब्दों के प्रेम में जली चाय की भी तपेली....
एक दिन सहसा मैं खुद से ही बोली....
अकेली होकर तू बन गयी खुद भी एक पहेली.....

19 comments:

  1. पहले थी अकेली
    चली चली
    फिर चली चली
    चली इश्क की हवा चली....
    और तुम अम्बरीश की हो ली....
    :-)

    सस्नेह
    अनु

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  2. मिनाक्षी जी बहुत बढ़िया । अपने फुर्सत के पलों को कविता का रूप क्या खूब दिया है । खूब बनी है शब्दों की तुकबंदी , सुन्दर ।

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  3. अब ये पहेली तो शब्दों की पहेली बुनने लगी है , सुन्दर.

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    1. शब्दों कि पहेली :)

      thank you so much

      regards

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  4. akele rah kar hi pahchan pate hain hum khud ko...

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  5. खुद से कहती, खुद में समाती श्ब्द्भावों की पहेली

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    1. धन्यवाद रश्मि जी...
      आपका मेरे ब्लॉग पे स्वागत है... अच्छा लगा आपको यहाँ देखकर....
      सादर

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  6. अकेली.
    सहेली
    अठखेली
    खेली
    अकेली
    चमेली
    कली
    तितली
    आंखिमचोली
    ठिठोली
    एखली
    रंगोली
    तपेली
    बोली
    पहेली

    अंतिम लाइनों में भी कविता...वाह क्या बात है

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    1. धन्यवाद
      आपका शुभ नाम नहीं दिख पा रहा मुझे

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  7. अपने अंतरद्वन्द की पेशगी | बहुत खूब..|

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  8. ahaaaaa kya baat.......bahut sundar!

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