जब जब मौन को विजय करना चाहा है,
शब्द फूट फूट कर निकसे हैं।
दबे हुए से भाव अंतस में कुलबुलाये हैं,
अधरों पर उमड़-उमड़ कर आये हैं।
कैसी विडम्बना है ये मानव मन की,
बंधन को छिन्न करने को त्वरित होता है।
सीमायें जब निर्धारित हो जाएँ,
सीमाओं की बाड़ नष्ट करने को आतुर रहता है।
द्वंद्व पाश में व्याकुल ह्रदय,
ज्यों आखेटक के पाश में विवश खग हो।
क्षण-क्षण छटपटाता व्यथित उर यों,
ज्यों पाश में खग अपनी वेदना को प्रकट करे।
स्वतंत्र पखेरू बन उड़ना चाहे मन-बावरा,
ऊंचे उस आकाश में क्षितिज की आस में।
वश में ना वो आना चाहे किसी भी मायाजाल के,
पंख पसारे ह्रुदय-विहंग गाये अपनी तान में।
नीरव कानन में राग नया कोई ढूंढें अपनी मस्ती में,
कोलाहल से त्रस्त हो गया मानवता की बस्ती में।
मन नहीं अब लगता उसका माया-मोह-प्रपंच में,
अंतर्द्वंद्व का अंत कोई हो,अंतर्द्वंद्व का अंत कोई हो।
द्वंद्व पाश में व्याकुल ह्रदय,
ReplyDeleteज्यों आखेटक के पाश में विवश खग हो।
क्षण-क्षण छटपटाता व्यथित उर यों,
ज्यों पाश में खग अपनी वेदना को प्रकट करे।.....bahut khub .sundar abhiwykti ......
धन्यवाद रंजू जी... स्वागत है आपका ....
ReplyDeleteसादर
सीमाएं जब निर्धारित हो जाएँ ,सीमाओ की बाड़ नष्ट करने को आतुर रहता है ।
ReplyDeleteमीनाक्षी जी बन्धन किसी को नहीं पसन्द है । बहुत बढियां ,सुंदर रचना ।
धन्यवाद आनंद जी :)
Deleteसादर
कह दो विहग से हौसलों से काम ले
ReplyDeleteयुगों से मिटते अस्तित्व को थाम ले
आखेटक कब तक जल बिछाएगा
उसके जमीर का चूहा उसे कुतर जायेगा
और अंत में जरा फडकता हो जाय .
हमारे हौसलों का रेग ए सहरा पर असर देखो, अगर ठोकर लगा दें हम तो चशमे फूट जाते हैं
वाह आशीष जी...
Deleteक्या बात कही है.... विहंग के उत्साह को पर लग गए...
आभार
सादर
धन्यवाद महेंद्र जी
ReplyDeleteसादर