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Wednesday, 26 September 2012

"ह्रुदय-विहंग"




जब जब मौन को विजय करना चाहा है,
शब्द फूट फूट कर निकसे हैं।
दबे हुए से भाव अंतस में कुलबुलाये हैं,
अधरों पर उमड़-उमड़ कर आये हैं।


कैसी विडम्बना है ये मानव मन की,
बंधन को छिन्न करने को त्वरित होता है।
सीमायें जब निर्धारित हो जाएँ,
सीमाओं की बाड़ नष्ट करने को आतुर रहता है।

द्वंद्व पाश में व्याकुल ह्रदय,
ज्यों आखेटक के पाश में विवश खग हो।
क्षण-क्षण छटपटाता व्यथित उर यों,
ज्यों पाश में खग अपनी वेदना को प्रकट करे।

स्वतंत्र पखेरू बन उड़ना चाहे मन-बावरा,
ऊंचे उस आकाश में क्षितिज की आस में।
वश में ना वो आना चाहे किसी भी मायाजाल के,
पंख पसारे ह्रुदय-विहंग गाये अपनी तान में।

नीरव कानन में राग नया कोई ढूंढें अपनी मस्ती में,
कोलाहल से त्रस्त हो गया मानवता की बस्ती में।
मन नहीं अब लगता उसका माया-मोह-प्रपंच में,
अंतर्द्वंद्व का अंत कोई हो,अंतर्द्वंद्व का अंत कोई हो।

7 comments:

  1. द्वंद्व पाश में व्याकुल ह्रदय,
    ज्यों आखेटक के पाश में विवश खग हो।
    क्षण-क्षण छटपटाता व्यथित उर यों,
    ज्यों पाश में खग अपनी वेदना को प्रकट करे।.....bahut khub .sundar abhiwykti ......

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  2. धन्यवाद रंजू जी... स्वागत है आपका ....

    सादर

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  3. सीमाएं जब निर्धारित हो जाएँ ,सीमाओ की बाड़ नष्ट करने को आतुर रहता है ।
    मीनाक्षी जी बन्धन किसी को नहीं पसन्द है । बहुत बढियां ,सुंदर रचना ।

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    1. धन्यवाद आनंद जी :)

      सादर

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  4. कह दो विहग से हौसलों से काम ले
    युगों से मिटते अस्तित्व को थाम ले
    आखेटक कब तक जल बिछाएगा
    उसके जमीर का चूहा उसे कुतर जायेगा
    और अंत में जरा फडकता हो जाय .
    हमारे हौसलों का रेग ए सहरा पर असर देखो, अगर ठोकर लगा दें हम तो चशमे फूट जाते हैं

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    1. वाह आशीष जी...
      क्या बात कही है.... विहंग के उत्साह को पर लग गए...
      आभार

      सादर

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  5. धन्यवाद महेंद्र जी

    सादर

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