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Friday, 26 October 2012

"पगडंडियाँ"

क़दमों की आहटें सुन फिजा महक जाती है .....
कदम बढ़ते जाते हैं और "पगडंडियाँ" बन जाती हैं .....


http://www.facebook.com/#!/pages/Pagdandiyan/367545386665536

छोर दिखे न उसका कोई,
डग-मग सी वो चलती जाए|
कहीं संभलकर सीधी चल दे,
जैसे रस्ता हमें दिखाए|
देह तोडती कहीं-कहीं पे,
टेढ़ी-मेढ़ी मुड़-मुड़ जाएँ|
लहराती हुयी चल दे अचानक से,
लरज-लरज वो शरमा जाए|
छुपन-छुपायी खेले कहीं पे,
इधर-उधर आड़ ले छुप वो जाए|

पगडण्डी ढूँढती बसेरा पल-पल यूँ ही
बढती जाए,
दिन ही ना गुज़रे ये लम्बा.....
हफ्ते,साल फुर्र से उड़ जाएँ .....|

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