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Friday 10 August 2012

"मेरी परछाई"

आज वाकया कुछ ऐसा हुआ साथ मेरे ,
अपनी परछाई से ही डर बैठी मैं.....
ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था साथ मेरे,
क्या डर सताया मन को आज जो सकपका गयी मैं.....??????
क्या कोई अपना नहीं है साथ मेरे,
जो इस तरह घबरा गयी मैं......????
उथल-पुथल में उलझा है मन...
जाने कौन व्यथा घेरे है इसको...
शंका के बादल छाये हैं हर क्षण...
जाने कौन बयार थामे है इनको.....
काश के माँ का आँचल होता,
फूट-फूट कर मैं रो लेती.....
चाहे उलझन का कोई हल न मिलता,
मन थोड़ा हल्का कर लेती......
कुछ कम हो जाती व्याकुलता,
गोदी में रख के सर सो लेती.....
रात घनेरी हो चली है अब तो,
मेरा डर बढ़ता ही जाए,
कान्हा तू ही आजा अब तो,
संबल अब टूटा सा जाए,
आकर कुछ तो आस बंधा दे,
थोड़ा सा विश्वास जगा दे,
मन का दूर अँधेरा कर दे...
मेरी व्यथा का कुछ तो हल दे.......

5 comments:

  1. अरे??????
    लाइट जलाओ....माँ को फोन करो...या हमें ही कर लो.

    और ये सिर्फ रचना है तो बहुत सुन्दर.

    खुश रहो.
    ढेर सा प्यार.
    अनु

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    Replies
    1. thanks a lot mini aunty.... :)

      glad to see your concern... <3 <3

      कभी कभी जब मन को अँधेरे घेर लेते हैं... तो बस शब्द फूट पड़ते हैं....

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  2. काश के माँ का आँचल होता,
    फूट-फूट कर मैं रो लेती.....
    चाहे उलझन का कोई हल न मिलता,
    मन थोड़ा हल्का कर लेती......

    पर कभी कभी रोने के लिए माँ का आँचल भी काम नहीं करता ....

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    Replies
    1. you are most welcome at my blog..... thanks :)

      सही कहा अंजू जी.... कभी कभी माँ का आँचल भी दुविधा को कम नहीं कर पाटा..
      बस थोड़ी राहत ही दे पाता है....

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